systemhalted by Palak Mathur

चाहत

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मजबूरी और बेबसी का जो है आलम, निजात उससे पाने की चाहत है, इंसानों को अब इंसानियत की है ज़रुरत, बस उनको यह समझाने की चाहत है |

की चाहतें तो हजारों पाल बैठे हैं, पर न पता किस चाहत की हमसे क्या चाहत है, की भूल बैठे ज़माना खुशियों का, न जाने ग़मों को हमसे इतनी क्या चाहत है ||

चाहते तो हम भी थे चाहतों की हद्द तक, पर न जाने क्यूँ चाहतों को हदों में सिमटने की चाहत है, शर्माने से रोका काफी बार इन चाहतों को, न जाने क्यूँ इन्हें सिमट जाने की चाहत है |

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